लंकाकाण्ड:भाग-पांच
लंकाकाण्ड में पुल
निर्माण से राम-रावण युद्ध व अयोध्या वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं। नीचे
लंकाकाण्ड से जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है।
• हनुमान्जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा
• देवताओं की स्तुति, इंद्र की अमृत वर्षा
• विभीषण की प्रार्थना, श्री रामजी के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोध
• विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना
• पुष्पक विमान पर चढ़कर श्री सीता-रामजी का अवध के लिए प्रस्थान, श्री रामचरित्र की महिमा
• देवताओं की स्तुति, इंद्र की अमृत वर्षा
• विभीषण की प्रार्थना, श्री रामजी के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोध
• विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना
• पुष्पक विमान पर चढ़कर श्री सीता-रामजी का अवध के लिए प्रस्थान, श्री रामचरित्र की महिमा
हनुमान्जी का सीताजी को कुशल सुनाना, सीताजी का आगमन और अग्नि परीक्षा
चौपाई :
* पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥
भावार्थ:-फिर प्रभु
ने हनुमान्जी को बुला लिया। भगवान् ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब
समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥
* तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥
भावार्थ:-तब
हनुमान्जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए)
दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान्जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी
को दिखला दिया॥2॥
* दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥
भावार्थ:-हनुमान्जी
ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही
श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु
छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥
* सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥
भावार्थ:-(हनुमान्जी
ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने
संग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य
प्राप्त किया है। हनुमान्जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा
गया॥4॥
छंद- :
* अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥
भावार्थ:-श्री
जानकीजी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों
में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्! मैं
तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं
है! (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत् का
राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री
रामजी को देख रहा हूँ।
दोहा :
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥
भावार्थ:-(जानकीजी ने
कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्!
शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥
चौपाई :
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥
भावार्थ:-हे तात! अब
तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के
दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी के पास जाकर हनुमान्जी ने जानकीजी का कुशल
समाचार सुनाया॥1॥
* सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥
मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥
भावार्थ:-सूर्य
कुलभूषण श्री रामजी ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और
कहा-) पवनपुत्र हनुमान् के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥
* तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥
भावार्थ:-वे सब तुरंत
ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा
कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत
प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥
* बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥
भावार्थ:-बहुत प्रकार
के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर
सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं॥4॥
बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥
भावार्थ:-चारों ओर
हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है।
रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने
दौड़े॥5॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥
भावार्थ:-श्री रघुवीर
ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको
माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥
* सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥7॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥7॥
भावार्थ:-प्रभु के
वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए।
सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी
भगवान् उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥
दोहा :
* तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥
भावार्थ:-इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥
चौपाई :
* प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥
भावार्थ:-प्रभु के
वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे
लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग
तैयार करो॥1॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥2॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥2॥
भावार्थ:-श्री सीताजी
की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों
में (विषाद के आँसुओं का) जल भर आया। वे हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु
से कुछ कह नहीं सकते॥2॥
देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥3॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री
रामजी का रुख देखकर लक्ष्मणजी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आए।
अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकीजी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ
भी नहीं हुआ॥3॥
* जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥4॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥4॥
भावार्थ:-(सीताजी ने
लीला से कहा-) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर को छोड़कर
दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति
जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो
जाएँ॥4॥
छंद- :
* श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें
सीताजी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने
चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की
छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन
चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े
देखते हैं॥1॥
* धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥
भावार्थ:-तब अग्नि ने
शरीर धारण करके वेदों में और जगत् में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी)
का हाथ पकड़ उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने
विष्णु भगवान् को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचंद्रजी के
वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए
खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥2॥
देवताओं की स्तुति, इंद्र की अमृत वर्षा
दोहा :
* बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान॥109 क॥
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान॥109 क॥
भावार्थ:-देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढ़ी अप्सराएँ नाचने लगीं॥109 (क)॥
* जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥109 ख॥
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥109 ख॥
भावार्थ:-श्री
जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी की अपरिमित और अपार शोभा देखकर
रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार श्री रघुनाथजी की जय बोलने लगे॥109
(ख)॥
चौपाई :
* तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥
भावार्थ:-तब श्री
रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ
लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं
मानो बड़े परमार्थी हों॥1॥
* दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥
भावार्थ:-हे
दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व
के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही
पाप से नष्ट हो गया॥2॥
* तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥
भावार्थ:-आप समरूप,
ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित),
अखंड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय,
अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं॥3॥
* मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥
भावार्थ:-आपने ही
मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ!
जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका
दुःख नाश किया॥4॥
* यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥
भावार्थ:-यह दुष्ट
मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यंत
क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का
हमारे मन में आश्चर्य हुआ।।5।।
* हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।
भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥
भावार्थ:-हम देवता
श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर
भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम
आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए॥6॥
दोहा-
* करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥
भावार्थ:-विनती करके
देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यंत प्रेम से
पुलकित शरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे-- ॥110॥
छंद-
* जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥
भावार्थ:-हे नित्य
सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी!
आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए
सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर
हैं॥1॥
* तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी।।
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥
भावार्थ:-आपके शरीर
की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि
आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को
गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया।।2।।
* जन रंजन भंजन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं।।
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।3।।
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं।।3।।
भावार्थ:-हे प्रभो!
आप सेवकों को आनंद देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोधरहित
और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला,
पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है।।3।।
* अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा।।
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा।।4।।
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा।।4।।
भावार्थ:-(किंतु
अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं।
हे करुणा की खान श्रीरामजी! मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता
हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को
हरने वाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लंका का) राजा बना दिया।।4।।
* गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं।।
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं।।5।।
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं।।5।।
भावार्थ:-हे गुण और
ज्ञान के भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित
श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदंडों का प्रताप और बल
प्रचंड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं।।5।।
* बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं।।
भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं।।6।।
भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं।।6।।
भावार्थ:-हे बिना ही
कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम! मैं श्रीजानकीजी
सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा
प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन
दोषों को हरने वाले हैं।।6।।
* सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं।।
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं।।7।।
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं।।7।।
भावार्थ:-आप मनोहर
बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके
नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, श्री (लक्ष्मीजी)
के वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम और झूठी ममता के नाश करने वाले हैं।।7।।
*अनवद्य अखंड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो।।
इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।।8।।
इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा।।8।।
भावार्थ:-आप अनिन्द्य
या दोषरहित हैं, अखंड हैं, इंद्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते
हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दंतकथा (कोरी
कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं
भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं।।8।।
* कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तनानन सादर ए।।
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे।।9।।
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे।।9।।
भावार्थ:-हे व्यापक
प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं।
(और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम
आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पड़े
हैं।।9।।
* अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ।।
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।10।।
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ।।10।।
भावार्थ:-हे
दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर
लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दु:ख है, उसे सुख मानकर आनंद
से विचरता हूँ।।10।।
* खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा।।
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं।।11।।
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं।।11।।
भावार्थ:-आप दुष्टों
का खंडन करने वाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरणकमल श्री
शिव-पार्वती द्वारा सेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए
कि आपके चरणकमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो।।11।।
दोहा-
* बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात।।111।।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात।।111।।
भावार्थ:-इस प्रकार
ब्रह्माजी ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र
श्रीरामजी के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे।।111।।
* तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।1 ।।
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।1 ।।
भावार्थ:-उसी समय
दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में
(प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु ने उनकी वंदना
की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया।।1।।
* तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ।।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।।2।।
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी।।2।।
भावार्थ:-(श्रीरामजी
ने कहा-) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैंने अजेय
राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यंत बढ़ गई।
नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खड़ी हो गई।।2।।
* रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।3।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो।।3।।
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी ने पहले के (जीवितकाल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही
उन्हें अपने स्वरूप का दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजी ने भेद-भक्ति
में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होंने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया।।3।।
* सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं।।
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा।।4।।
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा।।4।।
भावार्थ:-(मायारहित
सच्चिदानंदमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त) सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले
भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको श्रीरामजी अपनी भक्ति देते हैं।
प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथजी हर्षित होकर देवलोक
को चले गए।।4।।
दोहा-
* अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।112।।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस।।112।।
भावार्थ:-छोटे भाई
लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीश की शोभा देखकर
देवराज इंद्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे- ।।112।।
छंद -
* जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।
भावार्थ:-शोभा के
धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए
हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो! ।।1।।
* जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ।।2।।
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ।।2।।
भावार्थ:-हे खरदूषण
के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करने वाले! आपकी जय हो! हे नाथ!
आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए।।2।।
* जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार।।
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल।।3।।
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल।।3।।
भावार्थ:-हे भूमि का
भार हरने वाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु!
हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया।।3।।
* लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पं सब कें लाग।।4।।
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पं सब कें लाग।।4।।
भावार्थ:-लंकापति
रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में
कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हठपूर्वक
(हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था।।4।।
* परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट।।
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल।।5।।
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल।।5।।
भावार्थ:-वह दूसरों
से द्रोह करने में तत्पर और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया।
अब हे दीनों पर दया करने वाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले!
सुनिए।।5।।
* मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान।।
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।।6।।
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज।।6।।
भावार्थ:-मुझे अत्यंत
अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के
दर्शन करने से दु:ख समूह का देने वाला मेरा वह अभिमान जाता रहा।।6।।
* कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप।।7।।
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप।।7।।
भावार्थ:-कोई उन
निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं।
परंतु हे रामजी! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता
है।।7।।
* बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत।।
मोहि जानिऐ िनज दास। दे भक्ति रमानिवास।।8।।
मोहि जानिऐ िनज दास। दे भक्ति रमानिवास।।8।।
भावार्थ:-श्रीजानकीजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए।।8।।
छंद -
* दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं।।
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं।।
भावार्थ:-हे
रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरने वाले और उसे सब प्रकार का सुख देने
वाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए। हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की
छबिवाले रघुकुल के स्वामी श्रीरामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे
देवसमूह को आनंद देने वाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि)
द्वंद्वों के नाश करने वाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और
शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
दोहा -
* अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।113।।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।113।।
भावार्थ:-हे कृपालु!
अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या
(सेवा) करूँ! इंद्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु श्रीरामजी बोले ।।113।।
चौपाई
* सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।।मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।1।।
भावार्थ:-हे देवराज!
सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े
हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन
सबको जिला दो।।1।।
* सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी।।
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई।।2।।
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई।।2।।
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी
कहते हैं -) हे गरुड़! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यंत गहन (गूढ़) हैं।
ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकी को मारकर
जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होंने केवल इंद्र को बड़ाई दी है।।2।।
* सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।।
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।।3।।
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।।3।।
भावार्थ:-इंद्र ने
अमृत बरसाकर वानर-भालुओं को जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और प्रभु के
पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए,
राक्षस नहीं।।3।।
* रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बंधन।।
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा।।4।।
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा।।4।।
भावार्थ:-क्योंकि
राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत: वे मुक्त हो गए, उनके
भवबंधन छूट गए। किंतु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान् की लीला के परिकर)
थे। इसलिए वे सब श्रीरघुनाथजी की इच्छा से जीवित हो गए।।4।।
* राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी।।
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न।।5।।
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न।।5।।
भावार्थ:-श्रीरामचंद्रजी
के समान दीनों का हित करने वाला कौन है? जिन्होंने सारे राक्षसों को मुक्त
कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ
मुनि भी नहीं पाते।।5।।
दोहा -
* सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान।।114।। (क) ।।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान।।114।। (क) ।।
भावार्थ:-फूलों की
वर्षा करके सब देवता सुंदर विमानों पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकार
सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचंद्रजी के पास आए- ।।114 (क)।।
* परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि।। 114 (ख)।।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि।। 114 (ख)।।
भावार्थ:-और परम
प्रेम से दोनों हाथ जोड़कर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर
और गद्गद् वाणी से त्रिपुरारी शिवजी विनती करने लगे - ।।114 (ख) ।।
छंद
* मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।
मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन।।1।।
मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन।।1।।
भावार्थ:-हे रघुकुल
के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप
मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उड़ाने के) लिए प्रचंड पवन
हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनंद देने
वाले हैं।।1।।
* अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर।।
काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन।।2।।
काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन।।2।।
भावार्थ:-आप निर्गुण,
सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुंदर हैं। भ्रमरूपी अंधकार के (नाश के)
लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए
सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरंतर वास कीजिए।।2।।
* बिषय मनोरथ पुंज कुंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन।।भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर।।3।।
भावार्थ:-विषयकामनाओं
के समूह रूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से
परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मंदराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय
को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए।।3।।
* स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन।।
अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर।।
मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन।। 4-5।।
अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर।।
मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन।। 4-5।।
भावार्थ:-हे
श्यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत को दु:ख से छुड़ाने
वाले! हे राजा रामचंद्रजी! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी सहित निरंतर
मेरे हृदय के अंदर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वीमंडल
के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करने वाले हैं।। 4-5।।
दोहा
* नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ।।115।।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ।।115।।
भावार्थ:-हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा ।।115।।
विभीषण की प्रार्थना, श्री रामजी के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोध
चौपाई :
* करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥
भावार्थ:-जब शिवजी
विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर
कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती
सुनिए-॥1॥
* सकुल सदल प्रभु रावन मार्यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्यो॥
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥
भावार्थ:-आपने कुल और
सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ
दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की॥2॥
* अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जन करिअ समर श्रम छीजे॥
देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥3॥
देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥3॥
भावार्थ:-अब हे
प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे
युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्ति का निरीक्षण
कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए॥3॥
* सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ!
मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी
को पधारिए। विभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल
नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥4॥
दोहा :
* तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥116 क॥
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥116 क॥
भावार्थ:-(श्री रामजी
ने कहा-) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात
है। पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है॥116
(क)॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥116 ख॥
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥116 ख॥
भावार्थ:-तपस्वी के
वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरंतर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही
उपाय करो जिससे मैं जल्दी से जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा
(अनुरोध) करता हूँ॥116 (ख)॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥116 ग॥
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥116 ग॥
भावार्थ:-यदि अवधि
बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरतजी की प्रीति
का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥166 (ग)॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥116 घ॥
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥116 घ॥
भावार्थ:-(श्री रामजी
ने फिर कहा-) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण
करते रहना। फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते हैं॥116
(घ)॥
चौपाई :
* सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥1॥
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के वचन सुनते ही विभीषणजी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री
रामजी के चरण पकड़ लिए। सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकड़कर
उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे॥1॥
विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना
* बहुरि विभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा॥2॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा॥2॥
भावार्थ:-फिर
विभीषणजी महल को गए और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों
से विमान को भर लिया। फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा। तब
कृपासागर श्री रामजी ने हँसकर कहा-॥2॥
* चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही॥3॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही॥3॥
भावार्थ:-हे सखा
विभीषण! सुनो, विमान पर चढ़कर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा
दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषणजी ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों
को बरसा दिया॥3॥
* जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥4॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥4॥
भावार्थ:-जिसके मन को
जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर
उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और
कृपा के धाम श्री रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित हँसने लगे॥4॥
दोहा:
* मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥117 क॥
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥117 क॥
भावार्थ:-जिनको मुनि
ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के
समुद्र श्री रामजी वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥117
(क)॥
* उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥117 ख॥
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥117 ख॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते
हैं-) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम
करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर
करते हैं॥117 (ख)॥
चौपाई :
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥
भावार्थ:-भालुओं और
वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए।
अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति श्री रामजी बार-बार हँस रहे
हैं॥1॥
चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार्यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्यो॥2॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार्यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्यो॥2॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- हे
भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक
किया॥2॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥3॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥3॥
भावार्थ:-अब तुम सब
अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन
सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले-॥3॥
* प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥4॥
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥4॥
भावार्थ:-प्रभो! आप
जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे
रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने
सनाथ (कृतार्थ) किया है॥4॥
* सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥5॥
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥5॥
भावार्थ:-प्रभु के
(ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़ का
हित कर सकते हैं? श्री रामजी का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए।
उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है॥5॥
पुष्पक विमान पर चढ़कर श्री सीता-रामजी का अवध के लिए प्रस्थान, श्री रामचरित्र की महिमा
दोहा :
* प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥118 क॥
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥118 क॥
भावार्थ:-परन्तु
प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्री रामजी के रूप को हृदय में
रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥118
(क)॥
* कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥118 ख॥
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥118 ख॥
भावार्थ:-वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्, अंगद, नल और हनुमान् तथा विभीषण सहित और जो बलवान् वानर सेनापति हैं,॥118 (ख)॥
* कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118 ग॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118 ग॥
भावार्थ:-वे कुछ कह
नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर
(टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं॥118 (ग)॥
चौपाई :
* अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन
ही मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया॥1॥
* चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥
भावार्थ:-विमान के
चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान
में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री
रामचंद्रजी विराजमान हो गए॥2॥
राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥3॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥3॥
भावार्थ:-पत्नी सहित
श्री रामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित
श्याम मेघ हो। सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और
उन्होंने फूलों की वर्षा की॥3॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥4॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥4॥
भावार्थ:-अत्यंत सुख
देने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी। समुद्र,
तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके
मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥4॥
* कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥
हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥5॥
हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥5॥
भावार्थ:-श्री
रघुवीरजी ने कहा- हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतने
वाले मेघनाद को मारा था। हनुमान् और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर
रणभूमि में पड़े हैं॥5॥
* कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥6॥
भावार्थ:-देवताओं और मुनियों को दुःख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए॥6॥
दोहा :
* इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119 क॥
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119 क॥
भावार्थ:-मैंने यहाँ
पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की। तदनन्तर
कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम
किया॥119 (क)॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥119 ख॥
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥119 ख॥
भावार्थ:-वन में
जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचंद्रजी ने निवास और विश्राम किया था, वे सब
स्थान प्रभु ने जानकीजी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥119 (ख)॥
चौपाई :
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥
भावार्थ:-विमान शीघ्र
ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से
मुनिराज रहते थे। श्री रामजी इन सबके स्थानों में गए॥1॥
* सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥2॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥2॥
भावार्थ:-संपूर्ण
ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्री रामजी चित्रकूट आए। वहाँ मुनियों को
संतुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला॥2॥
* बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥3॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री
रामजी ने जानकीजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के
दर्शन कराए। फिर पवित्र गंगाजी के दर्शन किए। श्री रामजी ने कहा- हे सीते!
इन्हें प्रणाम करो॥3॥
* तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥4॥
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥5॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥4॥
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥5॥
भावार्थ:-फिर
तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग
जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणीजी के दर्शन करो, जो शोकों को हरने वाली
और श्री हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढ़ी के समान है। फिर अत्यंत
पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमन
रूपी) रोग का नाश करने वाली है॥4-5॥
दोहा :
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥120 क॥
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥120 क॥
भावार्थ:-यों कहकर
कृपालु श्री रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और
पुलकित शरीर होकर श्री रामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥120 (क)॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥120 ख॥
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥120 ख॥
भावार्थ:-फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥120 (ख)॥
चौपाई :
* प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥
भावार्थ:-तदनन्तर
प्रभु ने हनुमान्जी को समझाकर कहा- तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को
जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥1॥
* तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥
भावार्थ:-पवनपुत्र
हनुमान्जी तुरंत ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाजजी के पास गए। मुनि ने (इष्ट
बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की
दृष्टि से) आशीर्वाद दिया॥2॥
* मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥
भावार्थ:-दोनों हाथ
जोड़कर तथा मुनि के चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर (आगे)
चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने 'नाव कहाँ है? नाव
कहाँ है?' पुकारते हुए लोगों को बुलाया॥3॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥
भावार्थ:-इतने में ही
विमान गंगाजी को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे
पर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकार से गंगाजी की पूजा करके फिर उनके चरणों पर
गिरीं॥4॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥5॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥5॥
भावार्थ:-गंगाजी ने
मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो।
भगवान् के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल
होकर दौड़ा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,॥5॥
* प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥
भावार्थ:-और श्री
जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह (आनंद-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर
पड़ा, उसे शरीर की सुधि न रही। श्री रघुनाथजी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे
उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया॥6॥
छंद- :
* लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥
भावार्थ:-सुजानों के
राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकांत, कृपानिधान भगवान् ने उसको हृदय से लगा लिया
और अत्यंत निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा- आपके जो चरणकमल
ब्रह्माजी और शंकरजी से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे
सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता
हूँ॥1॥
* सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥
भावार्थ:-सब प्रकार
से नीच उस निषाद को भगवान् ने भरतजी की भाँति हृदय से लगा लिया।
तुलसीदासजी कहते हैं- इस मंदबुद्धि ने (मैंने) मोहवश उस प्रभु को भुला
दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करने वाला चरित्र सदा ही श्री रामजी के
चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह कामादि विकारों को हरने वाला और
(भगवान् के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है। देवता, सिद्ध
और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं॥2॥
दोहा :
समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121 क॥
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥121 क॥
भावार्थ:-जो सुजान
लोग श्री रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान् नित्य
विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥।121 (क)॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥121 ख॥
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥121 ख॥
भावार्थ:-अरे मन!
विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को
छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥121 (ख)॥
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह छठा सोपान समाप्त हुआ।
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह छठा सोपान समाप्त हुआ।
(लंकाकाण्ड समाप्त)
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